Friday, April 24, 2009

तुलसी संगत साध की, काटे कोटि अपराध

मिट्टी के एक ढेले से सुगंध आ रही थी, दूसरे से दुर्गंध। दोनों जब मिले तो आपस में विचार करने लगे कि हम दोनों एक ही मिट्टी के बने हैं, फिर हमारी सुगंधि में इतना अंतर क्यों? सुगंधित ढेले ने कहा यह संगति का प्रतिफल है। मुझे गुलाब के नीचे पड़े रहने का अवसर मिला और तुम गोबर के नीचे दबे रहे।

आचार्य चाणक्य ने कहा था कि सत्संग से दुष्ट एवं दुर्जन पुरुषों में सज्जनता अवश्य आ जाती है, परंतु दुष्टों की संगति से सज्जनों में असाधुता या दुष्टता नहीं आती। फूल की गंध को मिट्टी तो ग्रहण कर लेती है, परंतु मिट्टी की गंध फूल कभी धारण नहीं करते। स्वाति नक्षत्र से गिरने वाली बूंद एक ही होती है, परंतु संग के कारण उसके कई रूप हो जाते हैं। कमल पर पड़ी हुई मोती के आकार में शोभायमान होती है। वही बूंद सीप में गिर जाए तो मोती बन जाती है। सांप के मुख में पड़े तो विष का रूप धारण कर लेती है।

जॉर्ज वॉशिंगटन के शब्द हैं- कुसंगति में रहने की अपेक्षा अकेले रहना अधिक उत्तम है। काजल की कोठरी में कोई कितना समझदार व्यक्ति चला जाए, उसे भी काजल की एकाध लकीर लगे बिना नहीं रहती। अर्थात् अत्यधिक समझदार व्यक्ति पर भी कुसंग अपना प्रभाव दिखा ही देता है। सत्संग एक वेश्या तक को किस प्रकार धर्म में प्रवृत्त बना देता है, यह आम्रपाली के जीवन से प्रकट होता है। महात्मा बुद्ध के जीवन से प्रभावित होकर आम्रपाली एक धर्म पारायण स्त्री बन गई। महर्षि दयानंद के जीवन से अनेक आत्माओं ने ज्योति प्राप्त की। मुंशीराम जो मांसाहारी, मद्यप और नास्तिक थे, महर्षि दयानंद के संग में सदाचारी और आस्तिक बन गए।

सत्संग में महान शक्ति है। सत्संगति से मनुष्य अवनति के गर्त से उठकर उन्नति के उच्च शिखर पर पहुंच जाता है। राजा भर्तृहरि ने कहा था कि सत्संगति बुद्धि की जड़ता को हर लेती है, वाणी में सत्य को सींचती है, सम्मान को बढ़ाती है, पाप को दूर करती है, चित्त को प्रसन्न करती है और सब दिशाओं में यश को फैलाती है।

मनुष्य की पहचान उसकी संगति से पता चलती है। एक विचारहीन के साथ स्वर्ग में रहने की अपेक्षा जंगलों में वन प्राणियों के साथ घूमना कहीं अच्छा है।

अच्छा संग होने से न केवल व्यक्ति के चेतन मन में, बल्कि अचेतन में भी परिवर्तन होता है। नई प्रेरणाएं मिलती हैं, जिनसे हमारा दृष्टिकोण ही बदल जाता है। हम जीवन को नए अर्थों व नई संभावनाओं के साथ देखने लगते हैं। जिस तरह फूल अपनी सुगंधि चारों ओर बिखेरते हैं, उसी तरह मनुष्य भी अपने विचारों और भावनाओं के अनुरूप विद्युत कण बाहर फेंकते रहते हैं। उत्कृष्ट विचार और उदात्त भावनाओं वाले व्यक्ति चूंकि स्वयं पवित्र होते हैं, अत: उनके आसपास का क्षेत्र भी पवित्र होने लगता है। तपस्वी और योगी व्यक्ति ऊर्जा का बहुत बड़ा ट्रांसफार्मर होते हैं। उन्हें यह ऊर्जा परमेश्वर से मिलती है। महर्षि व्यास ने कहा था 'आत्मा की शुद्धि श्रेष्ठ पुरुषों के साथ बहुत तीव्र गति से होती है।'

सामान्यतया हमारा मन कई छद्म विश्वासों, मान्यताओं और ग्रंथियों का पिटारा है। हमारे विचार मन की इन्हीं उलझनों में फंसे रहते हैं। इनसे मुक्ति पाने के लिए हमें किसी आध्यात्मिक गुरु, मानवीय प्रकृति के ज्ञान में पारंगत श्रेष्ठ संत, योगी के संपर्क की आवश्यकता होती है। संतों के वचन और भावनाएं हमारे मन को जड़ता, प्रमाद व कुवृत्तियों से मुक्त करने में सहायक होते हैं। ऐसे लोगों की संगति से जहां हमारे अंदर सात्विक विचारों का प्रवाह बढ़ता है, वहीं पुराने विषम संस्कारों से छुटकारा भी मिल जाता है। इस तरह हमारा मन शुद्ध व अंत:करण शीतल हो जाता है।

इसलिए परामर्श दिया गया है 'संग सत्सु विधीयताम' अर्थात् सदा सज्जनों का सत्संग करो। महात्मा तुलसीदास ने स्वाध्याय की महिमा का गुणगान करते हुए लिखा है कि किस प्रकार श्रेष्ठ पुरुषों की संगति और स्वाध्याय से हमारे चित्त की विशादग्रस्त अवस्था आनंदमय हो जाती है :

एक घड़ी आधी घड़ी, आधी से पुनि आध ।
तुलसी संगत साध की, काटे कोटि अपराध ।।


सोजन्य से नवभारत टाईम्स