Friday, April 24, 2009

तुलसी संगत साध की, काटे कोटि अपराध

मिट्टी के एक ढेले से सुगंध आ रही थी, दूसरे से दुर्गंध। दोनों जब मिले तो आपस में विचार करने लगे कि हम दोनों एक ही मिट्टी के बने हैं, फिर हमारी सुगंधि में इतना अंतर क्यों? सुगंधित ढेले ने कहा यह संगति का प्रतिफल है। मुझे गुलाब के नीचे पड़े रहने का अवसर मिला और तुम गोबर के नीचे दबे रहे।

आचार्य चाणक्य ने कहा था कि सत्संग से दुष्ट एवं दुर्जन पुरुषों में सज्जनता अवश्य आ जाती है, परंतु दुष्टों की संगति से सज्जनों में असाधुता या दुष्टता नहीं आती। फूल की गंध को मिट्टी तो ग्रहण कर लेती है, परंतु मिट्टी की गंध फूल कभी धारण नहीं करते। स्वाति नक्षत्र से गिरने वाली बूंद एक ही होती है, परंतु संग के कारण उसके कई रूप हो जाते हैं। कमल पर पड़ी हुई मोती के आकार में शोभायमान होती है। वही बूंद सीप में गिर जाए तो मोती बन जाती है। सांप के मुख में पड़े तो विष का रूप धारण कर लेती है।

जॉर्ज वॉशिंगटन के शब्द हैं- कुसंगति में रहने की अपेक्षा अकेले रहना अधिक उत्तम है। काजल की कोठरी में कोई कितना समझदार व्यक्ति चला जाए, उसे भी काजल की एकाध लकीर लगे बिना नहीं रहती। अर्थात् अत्यधिक समझदार व्यक्ति पर भी कुसंग अपना प्रभाव दिखा ही देता है। सत्संग एक वेश्या तक को किस प्रकार धर्म में प्रवृत्त बना देता है, यह आम्रपाली के जीवन से प्रकट होता है। महात्मा बुद्ध के जीवन से प्रभावित होकर आम्रपाली एक धर्म पारायण स्त्री बन गई। महर्षि दयानंद के जीवन से अनेक आत्माओं ने ज्योति प्राप्त की। मुंशीराम जो मांसाहारी, मद्यप और नास्तिक थे, महर्षि दयानंद के संग में सदाचारी और आस्तिक बन गए।

सत्संग में महान शक्ति है। सत्संगति से मनुष्य अवनति के गर्त से उठकर उन्नति के उच्च शिखर पर पहुंच जाता है। राजा भर्तृहरि ने कहा था कि सत्संगति बुद्धि की जड़ता को हर लेती है, वाणी में सत्य को सींचती है, सम्मान को बढ़ाती है, पाप को दूर करती है, चित्त को प्रसन्न करती है और सब दिशाओं में यश को फैलाती है।

मनुष्य की पहचान उसकी संगति से पता चलती है। एक विचारहीन के साथ स्वर्ग में रहने की अपेक्षा जंगलों में वन प्राणियों के साथ घूमना कहीं अच्छा है।

अच्छा संग होने से न केवल व्यक्ति के चेतन मन में, बल्कि अचेतन में भी परिवर्तन होता है। नई प्रेरणाएं मिलती हैं, जिनसे हमारा दृष्टिकोण ही बदल जाता है। हम जीवन को नए अर्थों व नई संभावनाओं के साथ देखने लगते हैं। जिस तरह फूल अपनी सुगंधि चारों ओर बिखेरते हैं, उसी तरह मनुष्य भी अपने विचारों और भावनाओं के अनुरूप विद्युत कण बाहर फेंकते रहते हैं। उत्कृष्ट विचार और उदात्त भावनाओं वाले व्यक्ति चूंकि स्वयं पवित्र होते हैं, अत: उनके आसपास का क्षेत्र भी पवित्र होने लगता है। तपस्वी और योगी व्यक्ति ऊर्जा का बहुत बड़ा ट्रांसफार्मर होते हैं। उन्हें यह ऊर्जा परमेश्वर से मिलती है। महर्षि व्यास ने कहा था 'आत्मा की शुद्धि श्रेष्ठ पुरुषों के साथ बहुत तीव्र गति से होती है।'

सामान्यतया हमारा मन कई छद्म विश्वासों, मान्यताओं और ग्रंथियों का पिटारा है। हमारे विचार मन की इन्हीं उलझनों में फंसे रहते हैं। इनसे मुक्ति पाने के लिए हमें किसी आध्यात्मिक गुरु, मानवीय प्रकृति के ज्ञान में पारंगत श्रेष्ठ संत, योगी के संपर्क की आवश्यकता होती है। संतों के वचन और भावनाएं हमारे मन को जड़ता, प्रमाद व कुवृत्तियों से मुक्त करने में सहायक होते हैं। ऐसे लोगों की संगति से जहां हमारे अंदर सात्विक विचारों का प्रवाह बढ़ता है, वहीं पुराने विषम संस्कारों से छुटकारा भी मिल जाता है। इस तरह हमारा मन शुद्ध व अंत:करण शीतल हो जाता है।

इसलिए परामर्श दिया गया है 'संग सत्सु विधीयताम' अर्थात् सदा सज्जनों का सत्संग करो। महात्मा तुलसीदास ने स्वाध्याय की महिमा का गुणगान करते हुए लिखा है कि किस प्रकार श्रेष्ठ पुरुषों की संगति और स्वाध्याय से हमारे चित्त की विशादग्रस्त अवस्था आनंदमय हो जाती है :

एक घड़ी आधी घड़ी, आधी से पुनि आध ।
तुलसी संगत साध की, काटे कोटि अपराध ।।


सोजन्य से नवभारत टाईम्स

Tuesday, March 3, 2009

निंदा और प्रशंसा

छज्जूराम धार्मिक स्वभाव का व्यक्ति था। उसके पास एक व्यापारी का लड़का रोज पढ़ने के लिए आया करता था। एक दिन उस लड़के ने कीमती गहने पहनरखे थे। छज्जूराम ने उसके गहने उतारकर रख लिए और पढ़ाने के बाद बिना गहनों के घर भेज दिया। लड़का घर पहुंचा तो मां ने पूछा, 'बेटा, गहने कहां गए?' उसने बताया कि छज्जूराम ने उतार लिए हैं।

मां ने पड़ोस की स्त्री से यह बात कही। उस स्त्री ने दूसरी से यह बात कही और इस तरह दूसरी से तीसरी होते हुए यह बात फैल गई। सभी कहने लगे कि छज्जूराम लुटेरा है, उसकी नीयत खराब है। उसकी निंदा घर-घर में होने लगी। इतने में लड़के का पिता आया तो उसे अपनी पत्नी से इस बात का पता चला। वह छज्जूराम के घर पहुंचा। छज्जूराम ने उसे गहने सौंपते हुए कहा, 'मैंने जानबूझकर गहने उतार लिए थे। मुझे डर था कि कहीं कोई इन्हें बच्चे से छीन न ले।

मैंने यह सोचकर रख लिया था कि आपको आकर सौंप दूंगा। इतने छोटे बच्चे को इस तरह कीमती गहने न पहनाएं।' लड़के का पिता घर आया। उसने कहा, 'छज्जूराम जी बहुत समझदार और ईमानदार व्यक्ति हैं।' यह बात भी एक कान से दूसरे कान तक पहुंची और हर ओर छज्जूराम की प्रशंसा होने लगी। जो लोग उसकी निंदा कर रहे थे वही सराहना करने लगे। जब छज्जूराम को अपनी निंदा और स्तुति की बात मालूम हुई तो उसने दो चुटकियों में राख लेकर फेंक दी। लोगों ने जब इसका रहस्य पूछा तो छज्जूराम ने कहा, 'यह निंदा की चुटकी है और यह है प्रशंसा की चुटकी। दोनों ही फेंकने लायक है। दुनिया द्वारा की गई निंदा और प्रशंसा पर ध्यान नहीं देना चाहिए। प्राय: यह देखा जाता है कि निंदा की अपेक्षा लोग प्रशंसा को नहीं पचा पाते। क्योंकि निंदा के मामले में तो व्यक्ति सावधान रहता है किंतु प्रशंसा के मामले में बेखबर हो जाता है।'

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Monday, March 2, 2009

सच्ची साधना

देशव्रत अपनी वृद्ध माता को छोड़कर एक मठ में चला गया और वहां साधना करने लगा। एक दिन प्रात:काल उसने स्नान करके अपना अंगोछा सूखने के लिए जमीन पर डाल दिया और वहीं आसन बिछाकर ध्यानमग्न हो गया। जैसे ही वह ध्यान मुद्रा से उठा, उसने देखा कि एक कौवा उसके अंगोछे को लेकर उड़ा जा रहा है। उसके क्रोध का ठिकाना न रहा। उसने अपनी एक सिद्धि का प्रयोग किया और अपनी आंखों से अंगारे बरसाने लगा। कौवा तत्काल भस्म हो गया।

देशव्रत अपनी इस उपलब्धि पर फूला न समाया। अहंकार से भरा वह भिक्षाटन के लिए निकला। उसने एक दरवाजे पर जाकर आवाज लगाई। उस घर के भीतर से लोगों की आवाजें तो आ रही थीं, पर कोई बाहर नहीं आ रहा था। उसने फिर पुकारा तो अंदर से एक स्त्री ने कहा, 'स्वामी जी, अभी अपने पति की सेवा में लगी हूं। कुछ ही क्षणों में आ रही हूं।' अहंकारी देशव्रत ने चिल्लाकर कहा, 'दुष्टे, तुझे नहीं मालूम इस अवज्ञा का क्या परिणाम हो सकता है।' तभी उस महिला ने बाहर आकर कहा, 'मैं जानती हूं। आप मुझे शाप देंगे, पर मैं कौवा नहीं कि भस्म हो जाऊंगी। अपनी वृद्ध मां को छोड़कर साधना करने वाले साधु, आप मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगे।'

देशव्रत को झटका लगा। उसने पूछा, 'आप कौन हैं? आप किसकी साधना करती हैं?' महिला ने जवाब दिया, 'मैं जिस गृहस्थ धर्म में हूं उस धर्म की साधना पूर्णतया समर्पित होकर करती हूं। आप चाहें तो इसे ही मेरी सिद्धि कह सकते हैं। इसी से मुझे शक्ति मिली है।' देशव्रत का सिर लज्जा से झुक गया। वह भिक्षा लिए बगैर ही अपने घर की ओर चल पड़ा। वह सोच रहा था, 'मैने न तो गृहस्थ धर्म की साधना की और न ही साधु धर्म की। दोनों से भ्रष्ट होकर मैं कुछ तांत्रिक सिद्धियों को ही सब कुछ समझ बैठा।' उस दिन से वह अपनी मां की सेवा में लग गया।

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Tuesday, February 24, 2009

कैसा अभिमान

एक घर के मुखिया को यह अभिमान हो गया कि उसके बिना उसके परिवार का काम नहीं चल सकता। उसकी छोटी सी दुकान थी। उससे जो आय होती थी, उसी से उसके परिवार का गुजारा चलता था। चूंकि कमाने वाला वह अकेला ही था इसलिए उसे लगता था कि उसके बगैर कुछ नहीं हो सकता। वह लोगों के सामने डींग हांका करता था।

एक दिन वह एक संत के सत्संग में पहुंचा। संत कह रहे थे, 'दुनिया में किसी के बिना किसी का काम नहीं रुकता। यह अभिमान व्यर्थ है कि मेरे बिना परिवार या समाज ठहर जाएगा। सभी को अपने भाग्य के अनुसार प्राप्त होता है।' सत्संग समाप्त होने के बाद मुखिया ने संत से कहा, 'मैं दिन भर कमाकर जो पैसे लाता हूं उसी से मेरे घर का खर्च चलता है। मेरे बिना तो मेरे परिवार के लोग भूखे मर जाएंगे।'

संत बोले, 'यह तुम्हारा भ्रम है। हर कोई अपने भाग्य का खाता है।' इस पर मुखिया ने कहा, 'आप इसे प्रमाणित करके दिखाइए।' संत ने कहा, 'ठीक है। तुम बिना किसी को बताए घर से एक महीने के लिए गायब हो जाओ।' उसने ऐसा ही किया। संत ने यह बात फैला दी कि उसे बाघ ने खा लिया है। मुखिया के परिवार वालों ने कई दिनों तक शोक मनाया। गांव वाले आखिरकार उनकी मदद के लिए सामने आए। एक सेठ ने उसके बड़े लड़के को अपने यहां नौकरी दे दी। गांव वालों ने मिलकर लड़की की शादी कर दी। एक व्यक्ति छोटे बेटे की पढ़ाई का खर्च देने को तैयार हो गया। एक महीने बाद मुखिया छिपता-छिपाता रात के वक्त अपने घर आया। घर वालों ने भूत समझकर दरवाजा नहीं खोला। जब वह बहुत गिड़गिड़ाया और उसने सारी बातें बताईं तो उसकी पत्नी ने दरवाजे के भीतर से ही उत्तर दिया, 'हमें तुम्हारी जरूरत नहीं है। अब हम पहले से ज्यादा सुखी हैं।' उस व्यक्ति का सारा अभिमान उतर गया।

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Sunday, February 22, 2009

ईश्वर की सत्ता

एक बार काशी नरेश ने अपने गुरु को दरबार में बुलाया और आवभगत करने के बाद कहा, 'गुरुदेव, एक लंबे अर्से से मुझे आपके धर्मोपदेश सुनने का सुअवसर प्राप्त होता रहा है। आप ईश्वर की सत्ता और उसके न्याय की बातें बताते रहे हैं। मेरी हार्दिक इच्छा है कि मैं ईश्वर को साक्षात देखूं।' गुरु ने उत्तर दिया, 'जिस प्रकार आपको इस बात का अहसास है कि जो कपड़े आपने पहन रखे हैं, वे किसी और के बनाए हुए हैं, उसी प्रकार यह दिन-रात, आकाश, धरती आदि का बनाने वाला, हजारों प्रकार के जीव जंतुओं का निर्माण करने वाला भी कोई सर्वशक्तिमान है।' धर्मगुरु का उत्तर काशी नरेश को आश्वस्त नहीं कर सका।' वह ईश्वर के दर्शन कराने का आग्रह करते रहे। आखिरकार गुरु ने सम्राट को यह विश्वास दिलाया कि वह इसके लिए प्रयत्न करेंगे। दूसरे दिन दोपहर में, जब सूर्य तप रहा था गुरु ने सम्राट के महल में जाकर कहा, 'आपको शायद याद होगा कि कल आपने ईश्वर के दर्शन करने की इच्छा प्रकट की थी। कृपया मेरे साथ चलिए।' सम्राट तुरंत अपने गुरु के साथ बाहर आ गए।

कुछ क्षण वे दोनों धूप में चलते रहे। फिर गुरु ने कहा, 'सम्राट, आकाश में तपते हुए सूर्य की ओर देखें, सीधे सूर्य की ओर। और कहीं ध्यान न दें। यदि आपके मन में कोई भय हो तो उसे भी त्याग दें।' सम्राट ने सूर्य की ओर देखने के लिए अपनी नजर आकाश की ओर उठाई। सूर्य के तेज प्रकाश से उनकी आंखें चुंधियां गईं और वह सूर्य की ओर एक क्षण भी नहीं देख सके। काशी नरेश ने कहा, 'मैं सूर्य को नहीं देख सकता।' गुरु बोले, 'ठीक कहा, ईश्वर के साक्षात रूप को देखने का साहस हमारे अंदर नहीं है। जब आप ईश्वर की सत्ता के एक छोटे से निर्माण को, एक छोटी सी कृति को नहीं देख सकते तो उसके विराट स्वरूप को कैसे देख पाएंगे।'

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Friday, February 20, 2009

मंत्र का प्रसार

एक बार रामानुज के गुरु ने उन्हें अष्टाक्षर नारायण मंत्र सिखाया और कहा, 'यह मंत्र बहुत गोपनीय और प्रभावी है। यदि इसका मन ही मन श्रद्धापूर्वक जाप किया जाए तो पापों से छुटकारा मिल जाता है।' रामानुज ने पूछा, 'लेकिन जोर से उच्चारण करने में क्या दोष है?' गुरु ने समझाया, 'इससे यह मंत्र ऐसे लोगों के कानों में भी पड़ेगा जो इसके अधिकारी नहीं हैं। वे इसका आदर नहीं करेंगे।' इस पर रामानुज ने काफी मंथन किया और स्वाध्याय में लग गए। कुछ समय बाद एक दिन गुरु जी कहीं जा रहे थे, तो उन्होंने रामानुज को चौराहे पर खड़े होकर जोर-जोर से अष्टाक्षर मंत्र का जाप करते हुए देखा।
रामानुज लोगों को समझा रहे थे कि वे इसका जाप श्रद्धा से करें। गुरु ने कहा, 'यह क्या कर रहे हो? मैंने तो तुम्हें जोर-जोर से मंत्र जाप करने से मना किया था।' रामानुज ने गुरु को प्रणाम करके कहा, 'मुझे याद है गुरुदेव। मुझे यह भी पता है कि आपकी आज्ञा का पालन न करने के कारण मैं पाप का भागीदार बनूंगा। लेकिन यदि कुछ और लोग भी इस मंत्र की साधना में लगेंगे तो उनका कल्याण ही होगा।' रामानुज की इस भावना से गुरु बेहद प्रभावित हुए।

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Thursday, February 19, 2009

सच्चा गुरु

एक व्यक्ति श्रेष्ठ गुरु की तलाश में था। एक दिन उसने अपनी यह समस्या अपने मित्र को बताई। मित्र ने कहा, 'यह कौन सी बड़ी बात है। इसकी पहचान मैं करा दूंगा। तुम्हें जिस व्यक्ति को गुरु बनाना हो उसके पास मुझे ले चलो। मैं उसकी परीक्षा लेकर बता दूंगा कि वह गुरु बनने योग्य है या नहीं।'

मित्र ने इसके लिए एक नायाब तरीका अपनाया। वह जिस किसी के पास जाता, अपने साथ पिंजरे में एक कौवा ले जाता। मित्र महात्मा से पूछता, 'महाराज, यह पिंजरे में कबूतर ही है न?' इस बात को सुनकर कुछ लोग हंस पड़ते और उसका उपहास करने लग जाते। कई नाराज हो जाते और कहते, 'तुम जैसे मूर्खों से तो बात करना ही बेकार है।' कई साधु-संन्यासियों से मिलने के बाद आखिर दोनों फिर पहले की तरह ही कहा, 'महात्मा जी, यह कबूतर ही है न।'

इस पर महात्मा जी तनिक भी क्रोधित नहीं हुए। वह शांत भाव से बोले, 'नहीं बेटे, यह कबूतर नहीं कौवा है।' मित्र पूर्ववत उसे कबूतर साबित करने पर तुल गया। लेकिन तब भी उन्होंने अपना धैर्य नहीं खोया। फिर उन्होंने उसे प्यार से समझाया, कौवे और कबूतर के लक्षण बताए और कहा, 'देखो कि पिंजरे में बंद पक्षी के लक्षण किससे मिलते हैं। अब तुम ही तय करो कि यह क्या है?

अगर फिर भी समझ में नहीं आए तो चलो मैं तुम्हें जंगल में ले चलता हूं और विभिन्न पक्षियों की पहचान करवाता हूं।' दूसरे मित्र ने पहले मित्र को कोने में ले जाकर कहा, 'यही तुम्हारे गुरु हो सकते हैं। जो व्यक्ति दूसरों को सिखाने में रुचि ले और इस क्रम में अपना धैर्य न खोये, वही सच्चा गुरु हो सकता है। इन्होंने मेरा उपहास नहीं किया, न ही मुझ पर क्रोधित हुए क्योंकि इनके भीतर अपार धैर्य तो है ही, किसी व्यक्ति की गलती को सुधारने की सदिच्छा भी है।'

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Wednesday, February 18, 2009

सफलता का रास्ता

एक गांव में संगमरमर का एक विशाल और भव्य मंदिर था। संगमरमर के अतिरिक्त वहां किसी दूसरे पत्थर का प्रयोग नहीं हुआ था। भगवान की प्रतिमा भी संगमरमर की ही थी। लोग आते, मंदिर के आंगन में जूते उतारते, भीतर जाकर फल-फूल, धूप दीये आदि से भगवान की पूजा करते, श्रद्धा से उनके चरणों में सिर रखते।

मंदिर के आंगन में लगा संगमरमर यह सब देखता और दुखी होता। वह सोचता, 'मैं भी संगमरमर हूं और वह मूर्ति भी संगमरमर की है, पर ईश्वर का यह कैसा अन्याय है कि मेरे मुंह पर तो श्रद्धालु जूते उतारते हैं और भगवान के रूप में स्थापित संगमरमर को श्रद्धा से पूजते हैं।' एक रात जब मंदिर में सन्नाटा छा गया और पुजारी आदि चले गए तो आंगन के संगमरमर ने मूर्ति के संगमरमर से कहा,'मुझे तुम्हारे भाग्य से ईर्ष्या होती है।'मूर्ति के संगमरमर ने मुस्करा कर कहा, 'तुम व्यर्थ ही मुझसे ईर्ष्या करते हो, हम तो एक ही जाति के हैं।' आंगन का संगमरमर बोला, 'यही तो मेरी ईर्ष्या का कारण है। जब हम एक ही जाति के हैं तो ईश्वर ने क्यों ऐसा भेदभाव किया कि लोग मुझे रौंदते हैं, मेरे मुंह पर जूते रखते है और तुम्हें धूप- दीप दिखाकर तुम्हारी पूजा अर्चना करते हैं, तुम्हारे सामने सिर झुकाते हैं।'

मूर्ति के संगमरमर ने कहा 'देखो मित्र, इसमें भेदभाव की बात नहीं है। यह संसार का नियम है कि जो जितना दुख पाता है, जो जितने संघर्षों से जूझता है, उसे उतना ही सुख मिलता है। क्या तुम अनुमान लगा सकते हो कि इस स्थिति को पाने के लिए मुझे मूर्तिकार के हथौड़े की कितनी चोटेंसहनी पड़ी हैं। महीनों तक छैनी-हथौडे़ से वह मेरे शरीर को छीलता रहा, तब जाकर मेरी यह सूरत निखरकर सामने आई, जिसकी आज पूजा होती है। यदि तुमने भी मेरी तरह चोटें खा-खाकर कोई सूरत पाई होती, तो निस्संदेह आज किसी मंदिर में तुम्हारी पूजा हो रही होती।'

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Tuesday, February 17, 2009

दो मुट्ठी दाना

समर्थ गुरु राम दास छत्रपति शिवा जी के गुरु थे। वह भिक्षा से मिले अन्न से अपना भोजन करते थे। एक बार वह शिवा जी के महल में गए और दरवाजे के बाहर से भिक्षा की मांग की। शिवा जी अपने गुरु की आवाज पहचान कर नंगे पांव दौड़े-दौड़े बाहर आए और गुरु का चरणस्पर्श करने के बाद कहा, गुरुदेव आप हमारे गुरु है। भिक्षा मांग कर आपने हमें लज्जित किया है।

इस पर रामदास ने कहा, शिवा, आज मैं गुरु के रूप में नहीं, भिक्षुक के नाते भिक्षा मांगने यहां आया हूं। शिवा जी ने एक कागज पर कुछ लिख कर गुरु के कमंडल में डाल दिया। गुरु ने उसे पढ़ा। उसमें लिखा था, सारा राज्य गुरुदेव को अर्पित है। उन्होंने कागज को फाड़ कर फेंक दिया और उल्टे पैर जाने लगे।

शिवा जी कुछ समझे नहीं कि गुरुदेव बिना कुछ कहे लौट क्यों रहे हैं। उन्होंने कहा, गुरुदेव , क्या मुझसे कोई भूल हुई है जो आप जा रहे हैं। गुरुदेव ने कहा, शिवा, भूल तुमसे नहीं, मुझसे हुई है। मैं तुम्हारा गुरु होकर भी तुम्हें समझ नहीं पाया और न ही मैं तुम्हारे अंदर से तुम्हारे अहंकार को निकाल पाया कि तुम राजा नहीं, एक सेवक हो।

शिवा जी ने कहा, यह आप क्या कह रहे है गुरुदेव। मैं तन मन धन से जनता की सेवा करता हूं। अपने को राजा समझता ही नहीं।

गुरु रामदास ने कहा, शिवा, जो चीज तुम्हारी है ही नहीं, उसे तुम मुझे दे रहे हो, यह अहंकार नहीं तो और क्या है। मैं राज्य लेकर क्या करूंगा। मुझे तो दो मुट्ठी दाना ही काफी है। गुरुदेव ने आगे कहा, वत्स यह राज पाट, धन दौलत सब जनता की मेहनत का फल है। इस पर सबसे पहले उनका अधिकार है।

तुम एक समर्थवान सेवक मात्र हो। एक सेवक को दूसरे की चीज को दान देना राजधर्म नहीं है। उसकी रक्षा करना ही तुम्हारा धर्म है। शिवा जी पसोपेश में पड़ गए। उनकी कसमसाहट को समझ कर गुरुदेव ने कहा, वत्स, यदि शिष्य गुरु के वचनों को अंगीकार करके प्रायश्चित करके अपने को सुधार ले तो वह सबसे प्रिय शिष्य कहलाता है। शिवा जी गुरुदेव की भावना को समझ गए और उनसे क्षमा मांग कर बोले, गुरुदेव अब कभी भूल नहीं होगी।

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मनुष्यता की रक्षा

यह उस समय की बात है जब हमारा देश आजाद नहीं हुआ था। पश्चिम बंगाल के मिदनापुर में एक अंग्रेज जज थे- मिस्टर किली। उनका एक भारतीय नौकर था। एक बार वह नौकर बाजार से सामान लेकर आ रहा था कि बंगले के बाहर एक पागल कुत्ते ने उसे काट लिया। नौकर के रोने की आवाज सुन जज साहब उसके पास आए। नौकर ने बताया कि उसे एक पागल कुत्ते ने काट लिया है। जज साहब ने तुरंत कुत्ते के काटने की जगह पर अपना मुंह लगा दिया और सारा विषैला खून चूस कर उगल दिया। बाद में मरहम पट्टी करने के बाद उसे वह एक अंग्रेज डॉक्टर के पास ले गए। डॉक्टर ने जब पूरा वाकया सुना तो आश्चर्यचकित रह गया। वह बोला, 'आपने बेवकूफी की है। इससे तो आप की जान भी जा सकती थी। आप ने अंग्रेज होकर एक मामूली हिंदुस्तानी नौकर के लिए अपनी जान के साथ खिलवाड़ क्यों किया?'

जज साहब मुस्करा कर बोले, 'यह हमारा नौकर जरूर है लेकिन उसमें हमसे और आपसे ज्यादा इंसानियत है और इंसानियत की रक्षा के लिए मैं जान भी दे सकता हूं।' डॉक्टर की समझ में कुछ नहीं आया। उसने पूछा, 'आप क्या पहेली बुझा रहे है मेरी समझ में कुछ नहीं आया।' जज साहब ने कहा, 'एक बार मैं इसको साथ लेकर दूर गया था। सुनसान रास्ते में कुछ बदमाशों ने मेरी हत्या करने की कोशिश की, लेकिन इसने अपनी जान की परवाह नहीं की और मुझे बचाने के लिए बदमाशों के हाथ से चाकू छीन लिया। छीना झपटी में इसको गहरी चोट लगी। हमलावर बार-बार कह रहे थे कि तुम भाग जाओ। उसने कहा कि मैं मालिक को छोड़ कर नहीं जा सकता। अब आप बताएं कि आज मुझे क्या करना चाहिए था। इसे बचाना क्या मेरा कर्त्तव्य नहीं था? इसे कुछ हो जाता तो इंसानियत कलंकित हो जाती।' डॉक्टर का सिर झुक गया।

संकलित लेख

Monday, February 16, 2009

कर्म का रास्ता

संत रविदास जूते बनाने का काम करते थे। वे संन्यासियों और महात्माओं से बड़े स्नेह से मिलते और उनकी सेवा किया करते थे। एक बार उन्होंने एकसंत की खूब सेवा की। संत उनसे बहुत खुश हुए। जब वह जाने लगे तो उन्होंने रविदास से कहा, 'मैं तुम्हें एक पारस पत्थर देना चाहता हूं। अगर कोई लोहे की वस्तु इससे छू जाएगी तो वह सोना बन जाएगी।' इतना कहकर उन्होंने पारस को उस लोहे की सूई से छुआ दिया, जिससे रविदास जूते गांठते थे। रविदास ने कहा, 'अब मैं जूते किससे बनाऊंगा?' संत जी ने कहा, 'अब तुम्हें जूते बनाने की क्या जरूरत है? जब भी तुम्हें पैसे चाहिए हों, इसको किसी लोहे से छुआ देना, वह सोना बन जाएगा।' रविदास ने उसे लेने से इनकार कर दिया। लेकिन संत जी नहीं माने, बड़ा जोर डाला और यह कहते हुए पारस पत्थर को उनके आसन के पास रख दिया कि आप इसकी मदद से जो चाहे करो।

एक वर्ष बाद संत जी फिर उस रास्ते से गुजरे और रविदास की कुटिया तक पहुंचे। रविदास ने बड़े आदर भाव से उनकी सेवा की। संत जी ने कहा, 'तुम अभी तक इसी कुटिया में बैठे हो। मुझे उम्मीद थी कि तुमने पारस पत्थर की मदद से कोई मंदिर बनवाया होगा, जहां बहुत से लोग आते-जाते होंगे। पर तुम तो अब भी जूते बना रहे हो।'

रविदास ने उत्तर दिया, 'अगर मैं उस पत्थर का इस्तेमाल करने में लग जाता तो अपने कर्म से विमुख हो जाता, जबकि इस संसार में कर्म हर प्राणी के लिए अनिवार्य है। इसके बिना कोई भी व्यक्ति जीवन यात्रा नहीं कर सकता। निठल्ले बैठकर भोग करने से शरीर तो अस्वस्थ होता ही है, व्यक्ति ईश्वर की नजरों में भी गिर जाता है। कर्म से ही मनुष्य अपने चरम लक्ष्य तक पहुंच पाता है और मुझे अपने लक्ष्य तक हर हाल में पहुंचना है।'

Sunday, February 15, 2009

जीवन की सार्थकता

राजा विक्रमादित्य अत्यंत पराक्रमी, न्यायप्रिय, ईमानदार एवं दयालु शासक थे। उनकी प्रजा उनके द्वारा किए गए कामों की सराहना करते नहीं थकती थी। एक बार वह अपने गुरु के दर्शन करने उनके आश्रम पहुंचे। आश्रम में उन्होंने गुरु जी से अपनी कई जिज्ञासाओं का समाधान पाया। जब वह वहां से चलने लगे तो उन्होंने गुरु जी से कहा, 'गुरु जी, मुझे कोई ऐसा प्रेरक वाक्य बताइए जो महामंत्र बनकर न केवल मेरा बल्कि मेरे उत्तराधिकारियों का भी मार्गदर्शन करता रहे।'

गुरुजी ने उन्हें एक श्लोक लिखकर दिया जिसका आशय यह था कि मनुष्य को दिन व्यतीत हो जाने के बाद कुछ समय निकालकर यह चिंतन अवश्य करना चाहिए कि आज का व्यतीत होने वाला समय पशुवत गुजरा या सत्कर्मों में बीता क्योंकि बिना कार्य, समाजसेवा, परोपकार आदि के तो पशु भी अपना गुजारा प्रतिदिन करते हैं, जबकि मनुष्य का कर्त्तव्य तो अपने जीवन को सार्थक करना है। इस श्लोक का राजा विक्रमादित्य पर इतना असर पड़ा कि उन्होंने इसे अपने सिंहासन पर अंकित करवा दिया। अब वह रोज रात को यह विचार करते कि उनका दिन सद्कार्य में बीता या नहीं।

एक दिन अति व्यस्तता के कारण वह किसी की मदद अथवा परोपकार का कार्य नहीं कर पाए। रात को सोते समय दिन के कामों का स्मरण करने पर उन्हें याद आया कि आज उनके हाथ से कोई धर्म कार्य नहीं हो पाया। वह बेचैन हो उठे। उन्होंने सोने की कोशिश की पर उन्हें नींद नहीं आई।

आखिरकार वह उठकर बाहर निकल गए। रास्ते में उन्होंने देखा कि एक गरीब आदमी ठंड से सिकुड़ता हुआ सर्दी से बचने की कोशिश कर रहा है। उन्होंने उसे अपनी दुशाला ओढ़ाई और वापस राजमहल आ गए। उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि आज का दिन अच्छा बीता। उन्होंने सोचा कि यदि प्रत्येक व्यक्ति नेक कार्य, सद्भावना व परोपकार को अपनी दिनचर्या में शामिल कर ले तो उसका जीवन सार्थक हो जाएगा। यह सोचकर उन्हें नींद आ गई।

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धर्म संपूर्ण जीवन की पद्धति है

हर व्यक्ति को जो चीज हृदयंगम हो गई है , वह उसके लिए धर्म है। धर्म बुद्धिगम्य वस्तु नहीं , हृदयगम्य है।
महात्मा गांधी

सारे ही धर्म एक समान बात करते हैं। मनुष्यता के ऊंचे गुणों को विकसित करना ही धर्म का उद्देश्य है। हरिकृष्ण ' प्रेमी '

धर्म संपूर्ण जीवन की पद्धति है। धर्म जीवन का स्वभाव है। ऐसा नहीं हो सकता कि हम कुछ कार्य तो धर्म की मौजूदगी में करें और बाकी कामों के समय उसे भूल जाएं। दिनकर

जितने बंधे - बंधाए नियम और आचार हैं उनमें धर्म अंटता नहीं। हजारीप्रसाद द्विवेदी

Thursday, February 12, 2009

भावना का प्रकाश

एक दरवाजे पर एक संन्यासी ने भिक्षा के लिए आवाज लगाई। घर के भीतर से कोई उत्तर न मिलने पर उसने बार-बार पुकारा। आखिरकार क्रोध में भरी गृहिणी बाहर निकली और उसने फर्श का पोंछा संन्यासी के सिर पर दे मारा।

संन्यासी ने गृहिणी को आशीर्वाद दिया और वहां से चला गया। बाद में जब उस महिला को पता चला कि वह संन्यासी और कोई नहीं समर्थ गुरु रामदास थे, तो वह ग्लानि से भर उठी। वह उस मंदिर पर पहुंची, जहां समर्थ गुरु ठहरे थे। उसने देखा कि वहां उसके पोंछे को सुखाकर उसकी बत्तियां बनाई गई थीं और उससे असंख्य दीपक जल रहे थे।

महिला अपने आंसू रोक न सकी और गुरु के चरणों में गिर पड़ी। समर्थ गुरु ने कहा, 'उठो मां, तुम्हारे आंसू बता रहे हैं कि तुम्हारे भीतर गहरा पश्चाताप है। इस धारा से सबका कल्याण करो।' फिर वह भक्तों की ओर मुड़कर बोले, 'इस पोंछे से बनी बत्तियां जिस प्रकार प्रकाश फैला रही हैं, उसी प्रकार इनके आंसू की बूंदें भी रोशनी फैलाएंगी।'

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राज्य का अहंकार

एक बार संत रैक्य राजा जनक के पास गए। रैक्य ने जनक के साथ धर्म चर्चा की और उन्हें साधना सिखाई। जब रैक्य जाने लगे तो जनक ने प्रार्थना की, 'महाराज! आपने जो ज्ञान दिया, साधना का जो द्वार दिखाया उससे मैं आपका ऋणी हो गया हूं। इसके बदले में मैं आपको संपूर्ण राज्य अर्पित करना चाहता हूं।' रैक्य ने निर्विकार भाव से कहा, 'मुझे राज्य से क्या मतलब। राज्य लेकर मैं क्या करूंगा। राज्य तो उसको चाहिए जो राजसिक प्रवृत्ति का हो। मैंने रजोगुण और तमोगुण दोनों पर विजय प्राप्त कर ली है और अब सतोगुण की साधना में लगा हूं।'

राजा जनक ने पुन: निवेदन किया, 'यदि मैं दक्षिणास्वरूप कुछ देना चाहूं तो?' इस पर रैक्य बोले, 'यदि तुम दान करना ही चाहते हो तो राज्य नहीं, बल्कि राज्य देने का अहंकार मुझे दे दो।' रैक्य के इस कथन ने जनक की आंखें खोल दीं।

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Wednesday, February 11, 2009

परमार्थ की सीख

एक जमींदार ने अपनी बहुत सारी ज़मीन पर धान की फसल रोप दी। उसकी रखवाली के लिए उसने चारों ओर मचान बनाकर अनेक नौकर तैनात कर दिए। वे रात-दिनरखवाली करते लेकिन फिर भी पक्षी आते और फसल खा जाते। इससे जमींदार को काफी नुकसान हो रहा था। परेशान होकर जमींदार ने रखवालों को जाल फैलाने का आदेश दिया, ताकि पक्षियों को पकड़ा जा सके।

एक दिन उसमें एक सुंदर पक्षी फंस गया। नौकरों ने उसे पकड़ा और जमींदार के पास ले गए। उन्होंने कहा, 'मालिक, यह पक्षी रोज हमारे खेतों से भर पेट धान खाता है और खाने के बाद कुछ धान की बालियों को मुंह में दबाकर उड़ जाता है।' जमींदार ने कहा 'अच्छा ठीक है। अब हम इसे सजा देंगे।' तभी पक्षी बोल पड़ा, 'सजा देने से पहले आप मेरी भी सुन लें।' जमींदार ने कहा, 'ठीक है कहो।' पक्षी ने अपना पक्ष रखते हुए कहा, 'आपके इतने बड़े खेत से मेरे चोंच भर हिस्सा लेने से आपका कुछ विशेष नहीं घट जाएगा। मैं अपने खाने के बाद सिर्फ छह बालियां लेकर जाता हूं।' जमींदार ने पूछा, 'किसलिए?'

पक्षी ने कहा, 'मैं दो बालियां अपने वृद्ध माता पिता के लिए लेकर जाता हूं। उन्हें अब दिखाई नहीं देता है। जब तक वे युवा व स्वस्थ थे, उन्होंने तन-मन से मेरा पालन- पोषण किया। उन्होंने कभी मुझे भूखा नहीं रखा। लेकिन अब वह अस्वस्थ और बूढ़े हो गए हैं। तो मेरा भी यह कर्त्तव्य बनता है कि मैं भी उनका पालन-पोषण करूं और कभी उन्हें भूखा नहीं रखूं। दो बालियां मैं अपने नन्हे-मुन्ने बच्चों के लिए ले जाता हूं और दो बालियां अपने बीमार पड़ोसी पक्षियों के लिए। यह परमार्थ के लिए है। यदि मैं अपने जीवन में इतना भी परमार्थ न कर सकूं तो मेरा यह जीवन कैसा जीवन?' तभी जमींदार की नींद टूट गई। इस सपने से उसे बहुत बड़ी सीख मिली थी।

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प्रेम

प्रेम कभी अपने को नहीं पहचानता। दूसरे के लिए सदा उन्मत्त रहता है। स्वार्थ और प्रेम परस्पर विरोधी हैं। जहां स्वार्थ है, वहां प्रेम नहीं है। - अश्विनीकुमार दत्त

प्रेम में द्वेष की गुंजाइश ही नहीं, प्रेम में अहम-भाव नहीं, प्रेम सब कुछ सहन करता और मान लेता है।- महात्मा गांधी

प्रेम एक बीज है जो एक बार जम कर बड़ी मुश्किल से उखड़ता है।- प्रेमचंद

प्रेम में स्मृति का ही सुख है। एक टीस उठती है, वही प्रेम का प्राण है। - जयशंकर प्रसाद

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Monday, February 9, 2009

सुख का रहस्य

एक बार नगर के प्रसिद्ध सेठ बुद्ध के दर्शन के लिए पहुंचे। वहां उन्होंने देखा कि बुद्ध के चारों ओर अनेक भिक्षुक प्रसन्नता और उत्साह से भरे मस्ती में भजन कर रहे थे। उन सभी के चेहरे अलौकिक व दिव्य तेज से चमक रहे थे। उन्हें देखकर सेठ ने कहा, 'इन भिक्षुकों की दिनचर्या काफी कठिन और कष्टसाध्य है। कभी भोजन मिला तो कभी वह भी नहीं।

आप लोग पैदल यात्रा करते हैं, ज़मीन पर सोते हैं, सादा पहनते हैं। फिर भी सबके चेहरे पर एक अद्भुत संतोष है। जबकि हम लोग सुस्वादु भोजन करते हैं, आरामदेह बिछावन पर सोते हैं। फिर भी हमारे चेहरे रूखे और निस्तेज हैं। ऐसा क्यों?' सेठ का प्रश्न सुनकर बुद्ध बोले, 'भिक्षुगण कल की चिंता नहीं करते। वे हर स्थिति में संतुष्ट रहने के अभ्यासी हैं। इसलिए चिंता उनके मन-मस्तिष्क पर कभी हावी नहीं रहती जबकि क्रोध, लोभ, मोह के वशीभूत गृहस्थ लोग हमेशा निस्तेज व रूखे नजर आते हैं।'

दोषों से रहित

संत राबिया अपने गुणों और परोपकार की भावना के लिए प्रसिद्ध थीं। एक दिन एक भक्त किसी काम से उनके पास आया। उसने देखा कि राबिया के घर में एक ओर जल से भरा एक कलश रखा था और उसके पास आग जल रही थी। भक्त को यह देखकर थोड़ी हैरानी हुई। उसने पूछा, 'मां, जल से भरा कलश और अग्नि एक साथ रखने का क्या मतलब है?' राबिया मुस्कराकर बोली, 'पुत्र, मैं अपनी इच्छा को पानी में डुबोने को तत्पर रहती हूं और अहंकार को जला डालना चाहती हूं। पानी और अंगारे को करीब देखते ही मैं अपने दुर्गुण से सावधान हो जाती हूं।' इस पर भक्त बोला, 'पर आपने तो स्वयं को साधना से इतना जीत लिया है कि इच्छाएं और अहंकार तो आपको छू नहीं सकते।' राबिया ने कहा, 'पुत्र, सभी दोषों से रहित तो केवल ईश्वर होता है। जिस दिन मैं स्वयं को सर्वगुण संपन्न मान लूंगी उस दिन मेरा पतन हो जाएगा।'

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Sunday, February 8, 2009

जो मिल गया उस पर संतोष करो

संतुष्ट मन वाले के लिए सभी दिशाएं सदा सुखमयी हैं, जैसे जूता पहनने वाले के लिए कंकड़ और कांटे आदि से दुख नहीं होता। - भागवत

जो कुछ तुम्हें मिल गया है, उस पर संतोष करो और सदैव प्रसन्न रहने की चेष्टा करो। यहां पर 'मेरी' और 'तेरी' का अधिकार किसी को भी नहीं दिया गया है। - हाफिज

जिसमें न दंभ है, न अभिमान है, न लोभ है, न स्वार्थ है, न तृष्णा है और जो क्रोध से रहित तथा प्रशांत है, वही ब्राह्मण है, वही श्रमण है, और वही भिक्षु है। - उदान

ज्ञान और अंहकार

दो मित्र थे। दोनों ने एक साथ एक ही गुरु के पास विद्याध्ययन किया। अध्ययन के बाद दोनों अपने गांव लौटे। वैसे तो दोनों ने बराबर शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की थी पर उनमें से एक अपने-आपको बड़ा विद्वान और ज्ञानी समझता था। उसमें इतना अहंकार भर गया था कि वह अपने सामने दूसरों को तुच्छ समझता था। उसका मित्र उसकी इस दशा पर चिंतित रहता था। एक दिन वह अपने घमंडी मित्र को समुद्र तट पर घुमाने ले गया। वहां उसने अपनी हथेली पर थोड़ा जल लेकर कहा, 'देखो, मेरे पास कितना सारा पानी है।' घमंडी मित्र बोला, 'लगता है तुम पागल हो गए हो। तुम्हारे सामने विशाल सागर है, जिसमें अथाह पानी है। पर तुम कुछ बूंदें लेकर ही खुश हो रहे हो। भला इस सागर के समक्ष तुम्हारी हथेली की ये बूंदें क्या मायने रखती हैं?'

पहला मित्र यही तो सुनना चाहता था। उसने झट कहा, 'मित्र, तुम मुझे पागल साबित कर रहे हो पर तुम स्वयं कम पागल हो क्या? ज्ञान का सागर अथाह है पर तुम बूंद के समान थोड़ी सी विद्या प्राप्त करके ही अपने को महाज्ञानी समझ रहे हो। यह अहंकार तुम्हें नष्ट कर देगा।' दूसरा मित्र लज्जित हो गया।

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पुरुष की सोलह माताएं

हमारे शाश्त्रों में पुरूष वर्ग के लिए १६ माताओं का उल्लेख मिलता है, जो कि इस प्रकार से है:

गुरुपत्नी राजपत्नी देवपत्नी तथा वधू:।
पित्रो: स्वसा शिष्यपत्नी भृत्यपत्नी च मातुली।।
पितृपत्नी भ्रातृपत्नी श्वभ्रूश्च भगिनी सुता।
गर्भधात्रीष्टदेवी च पुंस: षोडश मातर:।।

गुरुपत्नी, राजपत्नी, देवपत्नी, पुत्रवधू, माता की बहन (यानी मौसी), पिता की बहन (यानी बुआ) शिष्यपत्नी, मामी, पिता की पत्नी (माता और विमाता) भाई की पत्नी, सास, बहिन, बेटी, गर्भ में धारण करनेवाली (जन्मदात्री) तथा इष्टदेवी -पुरुष की ये सोलह माताएं होती हैं।

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ब्रह्मावैवर्त्तपुराण (श्रीकृष्णजन्मखंड, ५९।५४-५६)

सबसे पहले अपने आप को जानो

यूनान के महान दार्शनिक सुकरात ने क्या कहा था? उसने कहा कि अपने आपको जानो। ध्यान मत बांटो। अपना ध्यान इधर-उधर मत होने दो। सबसे पहले अपने आपको जानो। उसके बाद जो करना है करो। अच्छा काम करना है, करो। सबसे बड़ी चीज है अपने आप को जानना। क्योंकि जो घोड़ा अपने आप चल नहीं सकता , उस पर सवारी कौन करेगा? वह कहां जाएगा? वह किसको कहां ले जाएगा? जो कार पहले से ही खराब पड़ी है, वह तो अपने आप गैरिज में भी नहीं जा सकती है। उसको तो धक्का मारना पडे़गा। मनुष्य की भी यही हालत हो रही है।

एक उदाहरण देता हूं। एक आदमी है और वह अपनी सारी याददाश्त खो बैठा है। पूरे तरीके से उसको कुछ याद नहीं है। उसको यह भी याद नहीं है कि वह किसका बाप है, उसका नाम क्या है, वह कहां रहता है? उसको कुछ याद नहीं है, पर उसके जो घरवाले हैं, उनको मालूम है कि ये कौन हैं? वे हर रोज उस आदमी को याद दिलाने की कोशिश करते हैं कि यह तेरा बेटा है। यह तुम को पिताजी कह कर बुलाता था। यह तेरी बीवी है, तू इससे प्यार करता है। यह तेरा भाई है, यह तेरा चाचा है। तू इस मकान में रहता है। यह तेरी नौकरी है, तू इस कंपनी में बड़ा नौकर है। सब लोग उसको बता रहे हैं और पूछते हैं कि कुछ याद आया? और वह बैठा-बैठा कहता है कि नहीं। तो उस घर में भला बताओ, क्या हालत होगी?

वह बेचारा बैठा-बैठा सोच रहा है कि मैं कौन हूं? यह कह रहे हैं कि यह मेरा बेटा है। मुझे तो कुछ याद नहीं है कि मैंने कभी शादी भी की है। यह कहती है, ये मेरी पत्नी है, परंतु मैं तो इसको जानता तक नहीं हूं। अपना चेहरा देखता है आईने में और कहता है कि यह कौन है? इसको तो मैंने पहले कभी देखा ही नहीं। ये लोग कहते हैं कि यह मेरी नौकरी है। मुझे तो याद ही नहीं कि मैं कोई नौकरी करता था।

अगर सारी की सारी याददाश्तों की लिस्ट बना ली जाए, तो आप क्या समझते हैं कि सबसे पहले उसको क्या याद आना चाहिए? सबसे पहले उसको याद आना चाहिए कि मैं कौन हूं? तो वे जो सारे रिश्ते-नाते हैं, वह उनसे तब तक नहीं जुड़ सकेगा, जब तक उसको यह याद नहीं आए कि मैं कौन हूं?

क्योंकि उसको मालूम नहीं कि मैं कौन हूं? सबसे पहले तो उसको यह याद आना चाहिए कि हां, मेरा नाम हरिराम है। जब उसको यह बात याद आ जाएगी, तब धीरे-धीरे वह और बातों को भी समझ सकता है। परंतु अगर उसको यही नहीं मालूम कि वह कौन है? तो और जो नाते हैं, उन नातों को वह कैसे जोड़ पाएगा?

अगर संसार में यह बात लागू है तो क्या हमारे निजी जीवन में भी यह बात लागू नहीं होगी कि सबसे पहले हम यह मालूम करें कि हम कौन हैं? जब यही नहीं मालूम है कि हम कौन हैं, तो हम औरों से कैसे रिश्ता जोड़ सकेंगे? जो कुछ भी हम को इस संसार के अंदर करना है, वह कैसे कर पाएंगे?

सबसे बड़ी चीज है- अपने आप को जानना। क्योंकि हर एक मनुष्य के अंदर शांति है। हर एक मनुष्य उस भगवान का प्रतीक है। हर एक मनुष्य के मन-मंदिर में उस बनाने वाले ने अपना मकान बनाया है। अगर मनुष्य अपनी जिंदगी में अपने आपको ही नहीं समझ पाया कि मैं कौन हूं तो वह औरों से रिश्ता कैसे जोड़ सकेगा? जो कुछ भी उसको इस संसार में करना है, उसे कैसे पूरा कर पाएगा? अपने यारों को, अपने मित्रों को समझाने की कोशिश करता है, परंतु अपने आपको समझ नहीं सका। अपने आप को ही नहीं जानता कि मैं कौन हूं।

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Saturday, February 7, 2009

मैं सीख गया, सूखा पत्ता देख

एक युवक ने शास्त्रों को अच्छी तरह रट लिया था, जिस कारण वह अहंकारी हो गया। एक दिन उसने अपने गुरु से कहा, 'हमें कुछ और सिखाइए।' गुरु बोले, 'सभी तरफ सिखाया जा रहा है। सीख लो।'

एक दिन वह एक पेड़ के नीचे बैठा था, तभी एक सूखा पत्ता सामने आ गिरा। उसे देखकर वह खुशी से पागल हो गया। वह आश्रम गया और सभी से कहने लगा, 'मैं सीख गया, मैं सीख गया।' सभी उससे पूछने लगे कि उसने क्या सीखा है, किस धर्मग्रंथ से सीखा है? इस पर उसने कहा, 'मैंने तो बस पेड़ के एक पत्ते को गिरते देखा और सीख गया।'

उसकी बात सुनकर दूसरे शिष्य बोले, 'अरे भाई। हम तो रोज सूखे पत्ते को गिरते देखते हैं हम तो कुछ नहीं सीखते। तुमने ऐसा क्या सीख लिया?' वह बोला, 'सूखा पत्ता गिरा तो मेरे भीतर भी कुछ गिरा। मुझे लगा कि कल मैं भी सूखे पत्ते की तरह गिर जाऊंगा। जब सूखे पत्ते की तरह गिर ही जाना है, तो फिर इतनी अकड़ क्यों? इतना अहंकार क्यों?' उसके गुरु भी यह सुन रहे थे। उन्होंने उसे गले से लगा लिया।

एक बार नेपोलियन ने एल्प्स पर्वत को लांघने की घोषणा की और सेना लेकर निकल पड़ा। उसने पहले तलहटी में खड़े होकर पहाड़ की दुर्गमता का अंदाजा लगाया फिर सेना को आगे बढ़ने का आदेश दिया। पास में ही एक बुढि़या लकड़ी काट रही थी। उसने कहा, 'क्यों जान दे रहे हो? तुम्हारे जैसे कितने आए और मुंह की खाकर यहीं रह गए।'

यह सुनते ही नेपोलियन ने झट अपने गले से हीरे का हार उतारकर बुढि़या को पहना दिया और कहा, 'आपने मेरा उत्साह दोगुना किया है। मैं भी और लोगों की तरह मरना चाहता हूं। अगर बच गया तो मेरी जय-जयकार करना।' इस पर बुढि़या बोली, 'तुम पहले ऐसे इंसान हो जो मेरी बात सुनकर हताश नहीं हुआ। जो सच्चे मन से कुछ करने की ठान लेता है, वह हारता नहीं।'

Friday, February 6, 2009

आत्मा का प्रकाश

राजा जनक ने महर्षि याज्ञवलक्य से पूछा, 'महात्मन्, बताइए एक व्यक्ति किस ज्योति से देखता है और काम लेता है?' याज्ञवलक्य ने कहा, 'यह तो बच्चों जैसी बा
त है महाराज। हर व्यक्ति जानता है कि मनुष्य सूर्य के प्रकाश में देखता है और उससे अपना काम चलाता है।'

जनक बोले, 'और जब सूर्य न हो तब?' याज्ञवलक्य बोले, 'तब वह चंद्रमा की ज्योति से काम चलाता है।' तभी जनक ने टोका, 'और चंद्रमा भी न हो तब?' याज्ञवलक्य ने जवाब दिया, 'तब वह अग्नि के प्रकाश में देखता है।' जनक ने फिर कहा, 'और जब अग्नि भी न हो तब?' याज्ञवलक्य ने मुस्कराते हुए कहा, 'तब वह वाणी के प्रकाश में देखता है।' जनक ने गंभीरतापूर्वक उसी तरह पूछा, 'यदि वाणी भी धोखा दे जाए तब?'

याज्ञवलक्य ने उत्तर दिया, 'तब मनुष्य का मार्ग प्रशस्त करने वाली एक ही वस्तु है -आत्मा। सूर्य, चंद्रमा, अग्नि और वाणी चाहे अपनी आंख भी खो दें पर आत्मा तब भी व्यक्ति के मार्ग को प्रशस्त करती है।' इस बार जनक संतुष्ट हुए।

एक संत अपने अनुयायी के घर पहुंचे। दोनों में बातचीत होने लगी। तभी एक पागल आया और संत के अनुयायी को भला-बुरा कहने लगा। अनुयायी सहता रहा, पर शीघ्र ही वह आपा खो बैठा और पागल को अपशब्द कहने लगा। संत उठकर जाने लगे।

यह देख उनका अनुयायी बोला, 'जब तक यह मुझे दुर्वचन कहे जा रहा था, आप कुछ न बोले पर जब मैं उसका जवाब देने लगा, तो आप उठकर चल दिए।' संत ने कहा, 'तुम इस व्यक्ति के बारे में अच्छी तरह जानते हो। जब तुम शांति से इसके दुर्वचनों को सह रहे थे तब देवता तुम्हारे पास थे और तुम्हारी ओर से उत्तर दे रहे थे, लेकिन जब तुमने अपना धैर्य त्याग कर उस व्यक्ति के आचरण का अनुगमन किया तो तुम्हारे भीतर देवता के बदले असुर आ गए। यह क्रोध असुर ही है। मैं असुर के संग नहीं रह सकता।'

हीरे का मूल्य और शायरी की कीमत

शेख सादी नामी शायर थे। उनकी शायरी के दीवाने सुलतान भी थे। एक बार सुलतान शेख सादी के पास गए और बोले, शेख साहब आप ने अपना पूरा जीवन शायरी कहने और लिखने में गंवा दिया। लेकिन आप जहां पहले थे, वहीं आज भी हैं। आपकी तंगहाली खत्म नहीं हुई। मैं तोहफे के तौर पर आपको एक कीमती हीरा दे रहा हूं। इसे बेच कर आप अपनी आर्थिक तंगी दूर कर सकते हैं।

शेख ने हीरे को उलटा- पलटा और फिर सुलतान को लौटाते हुए कहा, यह आप का भ्रम है सुलतान। यह हीरा तो हमारी शायरी के एक शब्द के बराबर भी नहीं है। सुलतान भौचक्के रह गए। बोले, यह असली हीरा है, कोई पत्थर नहीं है। आपको इसकी कीमत का पता नहीं है।

शेख ने कहा, हीरा आपके लिए होगा, पर यह समाज को खंडित करता है। आपसी भाईचारे में दरार डालता है। यह खून- खराबे की जड़ है। जब कि शायरी दो दिलों को जोड़ती है और आपसी प्रेम भाव को मजबूत करती है। मेरी शायरी सुनकर लोग चैन की नींद सोते हैं, जबकि हीरा पाकर उनकी नींद गायब हो जाती है।

सुलतान ने कहा, इसका सबूत क्या है? शेख सादी ने कहा, चलो मेरे साथ। दोनों एक अनजाने नगर में गए। पहले शेख शादी ने शायरी गाना शुरू किया। उसे सुनने के लिए वहां भारी भीड़ जमा हो गई। सभी मजहब के लोग शांत भाव से उसका आनंद लेने लगे। कोई शोर शराबा नहीं। अचानक शेख ने उस हीरे को भीड़ के बीच उछाल दिया। अब उसे लूटने के लिए शोर मच गया। धक्का- मुक्की होने लगी। कई लोग घायल हो गए। जिसे हीरा मिला वह चुपके से भाग गया। बचे हुए लोग आपस तब तक लड़ते रहे, जब तक कि शेख ने उन्हें चुप नहीं कराया। लेकिन सुलतान को समझ में आ गया कि शायरी की कीमत की तुलना हीरे-मोती से नहीं की जा सकती।

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संकल्प और भावना दो पलड़े हैं

संकल्प और भावना जीवन-तखड़ी के दो पलड़े हैं। जिसको अधिक भार से लाद दीजिए वही नीचे चला जाएगा। संकल्प कर्त्तव्य है और भावना कला। दोनों के समान समन्वय-वृंदावनलाल वर्मा

मनुष्य में शक्ति की कमी नहीं होती, संकल्प की कमी होती है। -विक्टर ह्युगो

संकट पहले अज्ञान और दुर्बलता से उत्पन्न होते हैं और फिर ज्ञान और शक्ति की प्राप्ति कराते हैं। -जेम्स एलेन

खतरा हमारी छिपी हुई हिम्मतों की कुंजी है। खतरे में पड़कर हम भय की सीमाओं से आगे बढ़ जाते हैं। -प्रेमचंद