Tuesday, March 3, 2009

निंदा और प्रशंसा

छज्जूराम धार्मिक स्वभाव का व्यक्ति था। उसके पास एक व्यापारी का लड़का रोज पढ़ने के लिए आया करता था। एक दिन उस लड़के ने कीमती गहने पहनरखे थे। छज्जूराम ने उसके गहने उतारकर रख लिए और पढ़ाने के बाद बिना गहनों के घर भेज दिया। लड़का घर पहुंचा तो मां ने पूछा, 'बेटा, गहने कहां गए?' उसने बताया कि छज्जूराम ने उतार लिए हैं।

मां ने पड़ोस की स्त्री से यह बात कही। उस स्त्री ने दूसरी से यह बात कही और इस तरह दूसरी से तीसरी होते हुए यह बात फैल गई। सभी कहने लगे कि छज्जूराम लुटेरा है, उसकी नीयत खराब है। उसकी निंदा घर-घर में होने लगी। इतने में लड़के का पिता आया तो उसे अपनी पत्नी से इस बात का पता चला। वह छज्जूराम के घर पहुंचा। छज्जूराम ने उसे गहने सौंपते हुए कहा, 'मैंने जानबूझकर गहने उतार लिए थे। मुझे डर था कि कहीं कोई इन्हें बच्चे से छीन न ले।

मैंने यह सोचकर रख लिया था कि आपको आकर सौंप दूंगा। इतने छोटे बच्चे को इस तरह कीमती गहने न पहनाएं।' लड़के का पिता घर आया। उसने कहा, 'छज्जूराम जी बहुत समझदार और ईमानदार व्यक्ति हैं।' यह बात भी एक कान से दूसरे कान तक पहुंची और हर ओर छज्जूराम की प्रशंसा होने लगी। जो लोग उसकी निंदा कर रहे थे वही सराहना करने लगे। जब छज्जूराम को अपनी निंदा और स्तुति की बात मालूम हुई तो उसने दो चुटकियों में राख लेकर फेंक दी। लोगों ने जब इसका रहस्य पूछा तो छज्जूराम ने कहा, 'यह निंदा की चुटकी है और यह है प्रशंसा की चुटकी। दोनों ही फेंकने लायक है। दुनिया द्वारा की गई निंदा और प्रशंसा पर ध्यान नहीं देना चाहिए। प्राय: यह देखा जाता है कि निंदा की अपेक्षा लोग प्रशंसा को नहीं पचा पाते। क्योंकि निंदा के मामले में तो व्यक्ति सावधान रहता है किंतु प्रशंसा के मामले में बेखबर हो जाता है।'

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Monday, March 2, 2009

सच्ची साधना

देशव्रत अपनी वृद्ध माता को छोड़कर एक मठ में चला गया और वहां साधना करने लगा। एक दिन प्रात:काल उसने स्नान करके अपना अंगोछा सूखने के लिए जमीन पर डाल दिया और वहीं आसन बिछाकर ध्यानमग्न हो गया। जैसे ही वह ध्यान मुद्रा से उठा, उसने देखा कि एक कौवा उसके अंगोछे को लेकर उड़ा जा रहा है। उसके क्रोध का ठिकाना न रहा। उसने अपनी एक सिद्धि का प्रयोग किया और अपनी आंखों से अंगारे बरसाने लगा। कौवा तत्काल भस्म हो गया।

देशव्रत अपनी इस उपलब्धि पर फूला न समाया। अहंकार से भरा वह भिक्षाटन के लिए निकला। उसने एक दरवाजे पर जाकर आवाज लगाई। उस घर के भीतर से लोगों की आवाजें तो आ रही थीं, पर कोई बाहर नहीं आ रहा था। उसने फिर पुकारा तो अंदर से एक स्त्री ने कहा, 'स्वामी जी, अभी अपने पति की सेवा में लगी हूं। कुछ ही क्षणों में आ रही हूं।' अहंकारी देशव्रत ने चिल्लाकर कहा, 'दुष्टे, तुझे नहीं मालूम इस अवज्ञा का क्या परिणाम हो सकता है।' तभी उस महिला ने बाहर आकर कहा, 'मैं जानती हूं। आप मुझे शाप देंगे, पर मैं कौवा नहीं कि भस्म हो जाऊंगी। अपनी वृद्ध मां को छोड़कर साधना करने वाले साधु, आप मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगे।'

देशव्रत को झटका लगा। उसने पूछा, 'आप कौन हैं? आप किसकी साधना करती हैं?' महिला ने जवाब दिया, 'मैं जिस गृहस्थ धर्म में हूं उस धर्म की साधना पूर्णतया समर्पित होकर करती हूं। आप चाहें तो इसे ही मेरी सिद्धि कह सकते हैं। इसी से मुझे शक्ति मिली है।' देशव्रत का सिर लज्जा से झुक गया। वह भिक्षा लिए बगैर ही अपने घर की ओर चल पड़ा। वह सोच रहा था, 'मैने न तो गृहस्थ धर्म की साधना की और न ही साधु धर्म की। दोनों से भ्रष्ट होकर मैं कुछ तांत्रिक सिद्धियों को ही सब कुछ समझ बैठा।' उस दिन से वह अपनी मां की सेवा में लग गया।

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