देशव्रत अपनी वृद्ध माता को छोड़कर एक मठ में चला गया और वहां साधना करने लगा। एक दिन प्रात:काल उसने स्नान करके अपना अंगोछा सूखने के लिए जमीन पर डाल दिया और वहीं आसन बिछाकर ध्यानमग्न हो गया। जैसे ही वह ध्यान मुद्रा से उठा, उसने देखा कि एक कौवा उसके अंगोछे को लेकर उड़ा जा रहा है। उसके क्रोध का ठिकाना न रहा। उसने अपनी एक सिद्धि का प्रयोग किया और अपनी आंखों से अंगारे बरसाने लगा। कौवा तत्काल भस्म हो गया।
देशव्रत अपनी इस उपलब्धि पर फूला न समाया। अहंकार से भरा वह भिक्षाटन के लिए निकला। उसने एक दरवाजे पर जाकर आवाज लगाई। उस घर के भीतर से लोगों की आवाजें तो आ रही थीं, पर कोई बाहर नहीं आ रहा था। उसने फिर पुकारा तो अंदर से एक स्त्री ने कहा, 'स्वामी जी, अभी अपने पति की सेवा में लगी हूं। कुछ ही क्षणों में आ रही हूं।' अहंकारी देशव्रत ने चिल्लाकर कहा, 'दुष्टे, तुझे नहीं मालूम इस अवज्ञा का क्या परिणाम हो सकता है।' तभी उस महिला ने बाहर आकर कहा, 'मैं जानती हूं। आप मुझे शाप देंगे, पर मैं कौवा नहीं कि भस्म हो जाऊंगी। अपनी वृद्ध मां को छोड़कर साधना करने वाले साधु, आप मेरा कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगे।'
देशव्रत को झटका लगा। उसने पूछा, 'आप कौन हैं? आप किसकी साधना करती हैं?' महिला ने जवाब दिया, 'मैं जिस गृहस्थ धर्म में हूं उस धर्म की साधना पूर्णतया समर्पित होकर करती हूं। आप चाहें तो इसे ही मेरी सिद्धि कह सकते हैं। इसी से मुझे शक्ति मिली है।' देशव्रत का सिर लज्जा से झुक गया। वह भिक्षा लिए बगैर ही अपने घर की ओर चल पड़ा। वह सोच रहा था, 'मैने न तो गृहस्थ धर्म की साधना की और न ही साधु धर्म की। दोनों से भ्रष्ट होकर मैं कुछ तांत्रिक सिद्धियों को ही सब कुछ समझ बैठा।' उस दिन से वह अपनी मां की सेवा में लग गया।
संकलित
Monday, March 2, 2009
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