एक बार नगर के प्रसिद्ध सेठ बुद्ध के दर्शन के लिए पहुंचे। वहां उन्होंने देखा कि बुद्ध के चारों ओर अनेक भिक्षुक प्रसन्नता और उत्साह से भरे मस्ती में भजन कर रहे थे। उन सभी के चेहरे अलौकिक व दिव्य तेज से चमक रहे थे। उन्हें देखकर सेठ ने कहा, 'इन भिक्षुकों की दिनचर्या काफी कठिन और कष्टसाध्य है। कभी भोजन मिला तो कभी वह भी नहीं।
आप लोग पैदल यात्रा करते हैं, ज़मीन पर सोते हैं, सादा पहनते हैं। फिर भी सबके चेहरे पर एक अद्भुत संतोष है। जबकि हम लोग सुस्वादु भोजन करते हैं, आरामदेह बिछावन पर सोते हैं। फिर भी हमारे चेहरे रूखे और निस्तेज हैं। ऐसा क्यों?' सेठ का प्रश्न सुनकर बुद्ध बोले, 'भिक्षुगण कल की चिंता नहीं करते। वे हर स्थिति में संतुष्ट रहने के अभ्यासी हैं। इसलिए चिंता उनके मन-मस्तिष्क पर कभी हावी नहीं रहती जबकि क्रोध, लोभ, मोह के वशीभूत गृहस्थ लोग हमेशा निस्तेज व रूखे नजर आते हैं।'
दोषों से रहित
संत राबिया अपने गुणों और परोपकार की भावना के लिए प्रसिद्ध थीं। एक दिन एक भक्त किसी काम से उनके पास आया। उसने देखा कि राबिया के घर में एक ओर जल से भरा एक कलश रखा था और उसके पास आग जल रही थी। भक्त को यह देखकर थोड़ी हैरानी हुई। उसने पूछा, 'मां, जल से भरा कलश और अग्नि एक साथ रखने का क्या मतलब है?' राबिया मुस्कराकर बोली, 'पुत्र, मैं अपनी इच्छा को पानी में डुबोने को तत्पर रहती हूं और अहंकार को जला डालना चाहती हूं। पानी और अंगारे को करीब देखते ही मैं अपने दुर्गुण से सावधान हो जाती हूं।' इस पर भक्त बोला, 'पर आपने तो स्वयं को साधना से इतना जीत लिया है कि इच्छाएं और अहंकार तो आपको छू नहीं सकते।' राबिया ने कहा, 'पुत्र, सभी दोषों से रहित तो केवल ईश्वर होता है। जिस दिन मैं स्वयं को सर्वगुण संपन्न मान लूंगी उस दिन मेरा पतन हो जाएगा।'
संकलित
Monday, February 9, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
बहुत बढिया लघु कथाएं हैं !!
ReplyDelete