एक दरवाजे पर एक संन्यासी ने भिक्षा के लिए आवाज लगाई। घर के भीतर से कोई उत्तर न मिलने पर उसने बार-बार पुकारा। आखिरकार क्रोध में भरी गृहिणी बाहर निकली और उसने फर्श का पोंछा संन्यासी के सिर पर दे मारा।
संन्यासी ने गृहिणी को आशीर्वाद दिया और वहां से चला गया। बाद में जब उस महिला को पता चला कि वह संन्यासी और कोई नहीं समर्थ गुरु रामदास थे, तो वह ग्लानि से भर उठी। वह उस मंदिर पर पहुंची, जहां समर्थ गुरु ठहरे थे। उसने देखा कि वहां उसके पोंछे को सुखाकर उसकी बत्तियां बनाई गई थीं और उससे असंख्य दीपक जल रहे थे।
महिला अपने आंसू रोक न सकी और गुरु के चरणों में गिर पड़ी। समर्थ गुरु ने कहा, 'उठो मां, तुम्हारे आंसू बता रहे हैं कि तुम्हारे भीतर गहरा पश्चाताप है। इस धारा से सबका कल्याण करो।' फिर वह भक्तों की ओर मुड़कर बोले, 'इस पोंछे से बनी बत्तियां जिस प्रकार प्रकाश फैला रही हैं, उसी प्रकार इनके आंसू की बूंदें भी रोशनी फैलाएंगी।'
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राज्य का अहंकार
एक बार संत रैक्य राजा जनक के पास गए। रैक्य ने जनक के साथ धर्म चर्चा की और उन्हें साधना सिखाई। जब रैक्य जाने लगे तो जनक ने प्रार्थना की, 'महाराज! आपने जो ज्ञान दिया, साधना का जो द्वार दिखाया उससे मैं आपका ऋणी हो गया हूं। इसके बदले में मैं आपको संपूर्ण राज्य अर्पित करना चाहता हूं।' रैक्य ने निर्विकार भाव से कहा, 'मुझे राज्य से क्या मतलब। राज्य लेकर मैं क्या करूंगा। राज्य तो उसको चाहिए जो राजसिक प्रवृत्ति का हो। मैंने रजोगुण और तमोगुण दोनों पर विजय प्राप्त कर ली है और अब सतोगुण की साधना में लगा हूं।'
राजा जनक ने पुन: निवेदन किया, 'यदि मैं दक्षिणास्वरूप कुछ देना चाहूं तो?' इस पर रैक्य बोले, 'यदि तुम दान करना ही चाहते हो तो राज्य नहीं, बल्कि राज्य देने का अहंकार मुझे दे दो।' रैक्य के इस कथन ने जनक की आंखें खोल दीं।
संकलित
Thursday, February 12, 2009
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Waah ! adbhud ! atisundar prerak prasang sunane ke liye aabhaar.
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