राजा जनक ने महर्षि याज्ञवलक्य से पूछा, 'महात्मन्, बताइए एक व्यक्ति किस ज्योति से देखता है और काम लेता है?' याज्ञवलक्य ने कहा, 'यह तो बच्चों जैसी बा
त है महाराज। हर व्यक्ति जानता है कि मनुष्य सूर्य के प्रकाश में देखता है और उससे अपना काम चलाता है।'
जनक बोले, 'और जब सूर्य न हो तब?' याज्ञवलक्य बोले, 'तब वह चंद्रमा की ज्योति से काम चलाता है।' तभी जनक ने टोका, 'और चंद्रमा भी न हो तब?' याज्ञवलक्य ने जवाब दिया, 'तब वह अग्नि के प्रकाश में देखता है।' जनक ने फिर कहा, 'और जब अग्नि भी न हो तब?' याज्ञवलक्य ने मुस्कराते हुए कहा, 'तब वह वाणी के प्रकाश में देखता है।' जनक ने गंभीरतापूर्वक उसी तरह पूछा, 'यदि वाणी भी धोखा दे जाए तब?'
याज्ञवलक्य ने उत्तर दिया, 'तब मनुष्य का मार्ग प्रशस्त करने वाली एक ही वस्तु है -आत्मा। सूर्य, चंद्रमा, अग्नि और वाणी चाहे अपनी आंख भी खो दें पर आत्मा तब भी व्यक्ति के मार्ग को प्रशस्त करती है।' इस बार जनक संतुष्ट हुए।
एक संत अपने अनुयायी के घर पहुंचे। दोनों में बातचीत होने लगी। तभी एक पागल आया और संत के अनुयायी को भला-बुरा कहने लगा। अनुयायी सहता रहा, पर शीघ्र ही वह आपा खो बैठा और पागल को अपशब्द कहने लगा। संत उठकर जाने लगे।
यह देख उनका अनुयायी बोला, 'जब तक यह मुझे दुर्वचन कहे जा रहा था, आप कुछ न बोले पर जब मैं उसका जवाब देने लगा, तो आप उठकर चल दिए।' संत ने कहा, 'तुम इस व्यक्ति के बारे में अच्छी तरह जानते हो। जब तुम शांति से इसके दुर्वचनों को सह रहे थे तब देवता तुम्हारे पास थे और तुम्हारी ओर से उत्तर दे रहे थे, लेकिन जब तुमने अपना धैर्य त्याग कर उस व्यक्ति के आचरण का अनुगमन किया तो तुम्हारे भीतर देवता के बदले असुर आ गए। यह क्रोध असुर ही है। मैं असुर के संग नहीं रह सकता।'
Friday, February 6, 2009
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