Wednesday, February 18, 2009

सफलता का रास्ता

एक गांव में संगमरमर का एक विशाल और भव्य मंदिर था। संगमरमर के अतिरिक्त वहां किसी दूसरे पत्थर का प्रयोग नहीं हुआ था। भगवान की प्रतिमा भी संगमरमर की ही थी। लोग आते, मंदिर के आंगन में जूते उतारते, भीतर जाकर फल-फूल, धूप दीये आदि से भगवान की पूजा करते, श्रद्धा से उनके चरणों में सिर रखते।

मंदिर के आंगन में लगा संगमरमर यह सब देखता और दुखी होता। वह सोचता, 'मैं भी संगमरमर हूं और वह मूर्ति भी संगमरमर की है, पर ईश्वर का यह कैसा अन्याय है कि मेरे मुंह पर तो श्रद्धालु जूते उतारते हैं और भगवान के रूप में स्थापित संगमरमर को श्रद्धा से पूजते हैं।' एक रात जब मंदिर में सन्नाटा छा गया और पुजारी आदि चले गए तो आंगन के संगमरमर ने मूर्ति के संगमरमर से कहा,'मुझे तुम्हारे भाग्य से ईर्ष्या होती है।'मूर्ति के संगमरमर ने मुस्करा कर कहा, 'तुम व्यर्थ ही मुझसे ईर्ष्या करते हो, हम तो एक ही जाति के हैं।' आंगन का संगमरमर बोला, 'यही तो मेरी ईर्ष्या का कारण है। जब हम एक ही जाति के हैं तो ईश्वर ने क्यों ऐसा भेदभाव किया कि लोग मुझे रौंदते हैं, मेरे मुंह पर जूते रखते है और तुम्हें धूप- दीप दिखाकर तुम्हारी पूजा अर्चना करते हैं, तुम्हारे सामने सिर झुकाते हैं।'

मूर्ति के संगमरमर ने कहा 'देखो मित्र, इसमें भेदभाव की बात नहीं है। यह संसार का नियम है कि जो जितना दुख पाता है, जो जितने संघर्षों से जूझता है, उसे उतना ही सुख मिलता है। क्या तुम अनुमान लगा सकते हो कि इस स्थिति को पाने के लिए मुझे मूर्तिकार के हथौड़े की कितनी चोटेंसहनी पड़ी हैं। महीनों तक छैनी-हथौडे़ से वह मेरे शरीर को छीलता रहा, तब जाकर मेरी यह सूरत निखरकर सामने आई, जिसकी आज पूजा होती है। यदि तुमने भी मेरी तरह चोटें खा-खाकर कोई सूरत पाई होती, तो निस्संदेह आज किसी मंदिर में तुम्हारी पूजा हो रही होती।'

संकलित

3 comments:

  1. अच्छा संदेश दिया है इस कथा के माध्यम से ..शुक्रिया

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  2. अच्छा लिखते हैं साधुवाद

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