एक व्यक्ति श्रेष्ठ गुरु की तलाश में था। एक दिन उसने अपनी यह समस्या अपने मित्र को बताई। मित्र ने कहा, 'यह कौन सी बड़ी बात है। इसकी पहचान मैं करा दूंगा। तुम्हें जिस व्यक्ति को गुरु बनाना हो उसके पास मुझे ले चलो। मैं उसकी परीक्षा लेकर बता दूंगा कि वह गुरु बनने योग्य है या नहीं।'
मित्र ने इसके लिए एक नायाब तरीका अपनाया। वह जिस किसी के पास जाता, अपने साथ पिंजरे में एक कौवा ले जाता। मित्र महात्मा से पूछता, 'महाराज, यह पिंजरे में कबूतर ही है न?' इस बात को सुनकर कुछ लोग हंस पड़ते और उसका उपहास करने लग जाते। कई नाराज हो जाते और कहते, 'तुम जैसे मूर्खों से तो बात करना ही बेकार है।' कई साधु-संन्यासियों से मिलने के बाद आखिर दोनों फिर पहले की तरह ही कहा, 'महात्मा जी, यह कबूतर ही है न।'
इस पर महात्मा जी तनिक भी क्रोधित नहीं हुए। वह शांत भाव से बोले, 'नहीं बेटे, यह कबूतर नहीं कौवा है।' मित्र पूर्ववत उसे कबूतर साबित करने पर तुल गया। लेकिन तब भी उन्होंने अपना धैर्य नहीं खोया। फिर उन्होंने उसे प्यार से समझाया, कौवे और कबूतर के लक्षण बताए और कहा, 'देखो कि पिंजरे में बंद पक्षी के लक्षण किससे मिलते हैं। अब तुम ही तय करो कि यह क्या है?
अगर फिर भी समझ में नहीं आए तो चलो मैं तुम्हें जंगल में ले चलता हूं और विभिन्न पक्षियों की पहचान करवाता हूं।' दूसरे मित्र ने पहले मित्र को कोने में ले जाकर कहा, 'यही तुम्हारे गुरु हो सकते हैं। जो व्यक्ति दूसरों को सिखाने में रुचि ले और इस क्रम में अपना धैर्य न खोये, वही सच्चा गुरु हो सकता है। इन्होंने मेरा उपहास नहीं किया, न ही मुझ पर क्रोधित हुए क्योंकि इनके भीतर अपार धैर्य तो है ही, किसी व्यक्ति की गलती को सुधारने की सदिच्छा भी है।'
संकलित
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
अति उत्तम. अच्छी बोध कथा है.
ReplyDelete