Sunday, February 22, 2009

ईश्वर की सत्ता

एक बार काशी नरेश ने अपने गुरु को दरबार में बुलाया और आवभगत करने के बाद कहा, 'गुरुदेव, एक लंबे अर्से से मुझे आपके धर्मोपदेश सुनने का सुअवसर प्राप्त होता रहा है। आप ईश्वर की सत्ता और उसके न्याय की बातें बताते रहे हैं। मेरी हार्दिक इच्छा है कि मैं ईश्वर को साक्षात देखूं।' गुरु ने उत्तर दिया, 'जिस प्रकार आपको इस बात का अहसास है कि जो कपड़े आपने पहन रखे हैं, वे किसी और के बनाए हुए हैं, उसी प्रकार यह दिन-रात, आकाश, धरती आदि का बनाने वाला, हजारों प्रकार के जीव जंतुओं का निर्माण करने वाला भी कोई सर्वशक्तिमान है।' धर्मगुरु का उत्तर काशी नरेश को आश्वस्त नहीं कर सका।' वह ईश्वर के दर्शन कराने का आग्रह करते रहे। आखिरकार गुरु ने सम्राट को यह विश्वास दिलाया कि वह इसके लिए प्रयत्न करेंगे। दूसरे दिन दोपहर में, जब सूर्य तप रहा था गुरु ने सम्राट के महल में जाकर कहा, 'आपको शायद याद होगा कि कल आपने ईश्वर के दर्शन करने की इच्छा प्रकट की थी। कृपया मेरे साथ चलिए।' सम्राट तुरंत अपने गुरु के साथ बाहर आ गए।

कुछ क्षण वे दोनों धूप में चलते रहे। फिर गुरु ने कहा, 'सम्राट, आकाश में तपते हुए सूर्य की ओर देखें, सीधे सूर्य की ओर। और कहीं ध्यान न दें। यदि आपके मन में कोई भय हो तो उसे भी त्याग दें।' सम्राट ने सूर्य की ओर देखने के लिए अपनी नजर आकाश की ओर उठाई। सूर्य के तेज प्रकाश से उनकी आंखें चुंधियां गईं और वह सूर्य की ओर एक क्षण भी नहीं देख सके। काशी नरेश ने कहा, 'मैं सूर्य को नहीं देख सकता।' गुरु बोले, 'ठीक कहा, ईश्वर के साक्षात रूप को देखने का साहस हमारे अंदर नहीं है। जब आप ईश्वर की सत्ता के एक छोटे से निर्माण को, एक छोटी सी कृति को नहीं देख सकते तो उसके विराट स्वरूप को कैसे देख पाएंगे।'

संकलित

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